भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
आँखों में जब सपने न थे तो टूटने का भय न था / राजमूर्ति ‘सौरभ’
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:37, 25 जुलाई 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राजमूर्ति ‘सौरभ’ |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आँखों में जब सपने न थे तो टूटने का भय न था
कितने भले थे दिन कि जब तुझसे मेरा परिचय न था
जब तू मिला ऐसा लगा जैसे मिला जीवन नया
वो ज़िन्दगी अबतक जिया जिसका कोई आशय न था
इक दूसरे के हो गये इक दूसरे में खो गये
जो कुछ हुआ होता गया उसमें तनिक अभिनय न था
तेरी ख़ुशी मेरी ख़ुशी ,दुख में तेरे मैं भी दुखी
विश्वास ही विश्वास था,शिक़वे न थे संशय न था
कैसे अचानक हो गया हम दूर हैं,मजबूर हैं
अवशेष शायद कोष में अब पुण्य का संचय न था