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आँखों में जब सपने न थे तो टूटने का भय न था / राजमूर्ति ‘सौरभ’

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आँखों में जब सपने न थे तो टूटने का भय न था
कितने भले थे दिन कि जब तुझसे मेरा परिचय न था

जब तू मिला ऐसा लगा जैसे मिला जीवन नया
वो ज़िन्दगी अबतक जिया जिसका कोई आशय न था

इक दूसरे के हो गये इक दूसरे में खो गये
जो कुछ हुआ होता गया उसमें तनिक अभिनय न था

तेरी ख़ुशी मेरी ख़ुशी ,दुख में तेरे मैं भी दुखी
विश्वास ही विश्वास था,शिक़वे न थे संशय न था

कैसे अचानक हो गया हम दूर हैं,मजबूर हैं
अवशेष शायद कोष में अब पुण्य का संचय न था