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आँख के उस पार तक / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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आँख तो सीमित रही बस आँख के ही द्वार तक।
नजर मेरी गयी होगी आँख के उस पार तक।

याद का सागर हिलोरें मारता हरपल रहा
भावना जागी गयी बस कामना के ज्वार तक।

स्वप्न में भी जीत के सपने सजाना व्यर्थ है
जीत के सारे शिखर हैं पहुँच पाते हार तक।

कैद है बस कैसटों में वेद की पावन ऋचा
युग सर्जन अब रह गया है शब्द के आधार तक।

मर्म बतलाते मिले हैं आज के श्रंगार का
सुन नहीं पाये कभी जो नूपुरी झनकार तक।

दर्शनों की लालसा में हम भटकते रह गये
घोर तृष्णा को सहेजे आ गये मझधार तक।

यों रहे ढोते उसे हम उम्र भर बोझिल बने
जिन्दगी जीवित रही बस एक क्षण के प्यार तक।

अब कहाँ कर्तव्य के वारिज विकसते दिलों में
आजकल सम्बन्ध केवल रह गये अधिकार तक।

मुस्कुराहट से गाल की रश्मियाँ झरने लगी
और कुछ आगे बढेंगी दहकते अंगार तक।

क्या भला ये क्रांति की चिनगारियाँ ज्वाला बने
आंदोलन रह गये हैं रेगते अखबार तक।