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आँसू ने इंकार कर दिया / राकेश खंडेलवाल

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मैने कलम हाथ में लेकर, सोचा शब्द पीर को दे दूँ
लेकिन आंसू ने स्याही में ढलने से इंकार कर दिया

निमिष विरह के जले दीप से, एकाकीपन नागफ़नी है
और जहां तक देखा मन में घिरी निराशा बहुत घनी है
मुस्कानों की नगरी वाले पथ पर जब जब भी आशायें
चलीं चार पग, वक्त लुटेरा, आ कर जाता राहजनी है

मैने हर पल ज्योति जगा कर एक किरन को पास बुलाया
लेकिन्ब रजनी ने उषा में ढलने से इंकार कर दिया

सुधियों की शहनाई पर जब बजी वेदनाओं की सारगम
सारंगी के करुण स्वरों ने किया साथ में मिलकर संगम
अलगोजे के सुर ने पकड़ा मरुथल वाली लू का झोंका
पंचम का आरोह बन गया, सिसकी वाला स्वर भी मद्दम

पथाराई आंखों में चाहा स्वप्न आंज दूं चन्द्र निशा के
लेकिन संध्या ने काजल में ढलने से इंकार कर दिया

सन्नाटे का दर्द न समझी, बढ़ती हुई गहन खामोशी
अपराधी सी हवा मौन है, दे स्वीकॄति होने की दोषी
सुइयों ने कर लिया घड़ी की, आज पेंडुलम से गठबन्धन
अटकी हुईं एक ही स्थल पर पीती हुईं सभी सरगोशी

मैने सूरज को आमंत्रण भेजा, आ दिन को गति दे दे
लेकिन उसके हर घोड़े ने चलने से इंकार कर दिया

बासन्ती चूनर पर आकर लगे बबूलों के यों पहरे
उड़ा रंग बस शेष रह गये हैं पतझड़ के साये गहरे
कोयल की कूकों को पीने लगी चीख नभ में चीलों की
ओढ़ घनी निस्तब्ध टीस को,पल आकर पल के घर ठहरे

मैने चाहा अमराई को नये सिरे से मैं बौराऊं
लेकिन मरुतों ने पुरबा में ढलने से इंकार कर दिया