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आईन-ए-वफा इतना भी सादा नहीं होता / शबनम शकील
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आईन-ए-वफा इतना भी सादा नहीं होता
हर बार मसर्रत का इआदा नहीं होता
ये कैसी सदाकत है कि पर्दो में छुपी है
इख़्लास का तो कोई लबादा नहीं होता
जंगल हो कि सहरा कहीं रूकना ही पड़ेगा
अब मुझ से सफर और ज़ियादा नहीं होता
इक आँच की पहले भी कसर रहती रही है
क्यूँ सातवाँ दर मुझ पे कुशादा नहीं होता
सच बात मिरे मुँह से निकल जाती है अक्सर
हर-चंद मिरा ऐसा इरादा नहीं होता
ऐ हर्फ-ए-सना सेहर-ए-मुसल्लम तिरा तुझ से
बढ़ कर तो कोई साग़र-ए-बादा नहीं होता
अफसाना-ए-अफसून-ए-जवानी के अलावा
किस बात का दुनिया में इआदा नहीं होता
सूरज की रिफाकात में चमक उठता है चेहरा
‘शबनम’ की तरह से कोई सादा नहीं होता