भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे / शकेब जलाली" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(New page: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= शकेब जलाली }} <poem> आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे ज...)
 
छो (आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे \ शकेब जलाली का नाम बदलकर आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे)
 
(कोई अंतर नहीं)

00:13, 15 मई 2009 के समय का अवतरण

आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे

ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.

मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे

तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.

देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे