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आगाज हो न पाया / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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आगाज हो न पाया, अंजाम हो रहा है
सिर पैर हो न जिसका, वह काम हो रहा है

दो-चार बूँद पानी क्या ले लिया नदी से
हर सिम्त समन्दर में कोहराम हो रहा है

कुछ आम रास्तों की तकदीर बस सफर है
कुछ खास मंजिलों पर आराम हो रहा है

इस पार भी है गुलशन, उस पार भी चमन है
सामान किस शहर का, नीलाम हो रहा है

पाताल के अँधेरे, आकाश तक चढ़े हैं
चन्दा उदास, सूरज नाकाम हो रहा है

कुछ लोग आइने को झूठा बता रहे हैं
सच का हरेक साया, बदनाम हो रहा है

इस दौर में यही क्या कम है पराग साहब
अपराधियों में अपना भी नाम हो रहा है