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"आज़ादी सबको मिले / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’" के अवतरणों में अंतर

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चार पैग जो पी गया, भूला जग का बैर।
 
चार पैग जो पी गया, भूला जग का बैर।
 
गिर नाली के कीच में, माँगे सबकी खैर।।
 
गिर नाली के कीच में, माँगे सबकी खैर।।
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213
 
राष्ट्रवाद भी खोट है, कुछ कहते मक्कार ।
 
राष्ट्रवाद भी खोट है, कुछ कहते मक्कार ।
 
छुपे हुए हैं देश में, ऐसे भी गद्दार।।
 
छुपे हुए हैं देश में, ऐसे भी गद्दार।।
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आज़ादी का नाम ले, खूब मचाई लूट।
 
आज़ादी का नाम ले, खूब मचाई लूट।
 
चोरी जब पकड़ी गई, माँग  रहे हैं छूट॥
 
चोरी जब पकड़ी गई, माँग  रहे हैं छूट॥
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काले धन को पूजते, पहने काला वेश।
 
काले धन को पूजते, पहने काला वेश।
 
लोकतन्त्र की आड़ में, लूटें पूरा देश॥
 
लोकतन्त्र की आड़ में, लूटें पूरा देश॥
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उम्र बिताई आस में, उसका बने मकान।
 
उम्र बिताई आस में, उसका बने मकान।
 
गए लुटेरे लूटके, सारे ही अरमान॥
 
गए लुटेरे लूटके, सारे ही अरमान॥
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आज़ादी सबको मिले , जिनको रहा जुनून।
 
आज़ादी सबको मिले , जिनको रहा जुनून।
 
उनके सपनों का किया, आज देख लो खून॥
 
उनके सपनों का किया, आज देख लो खून॥
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लोकतन्त्र का नाम ले, कपटी खेलें खेल।  
 
लोकतन्त्र का नाम ले, कपटी खेलें खेल।  
 
आग लगाकर देश में, छिड़क रहे हैं तेल॥
 
आग लगाकर देश में, छिड़क रहे हैं तेल॥
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दल बदले हैं रोज ही, बदल गई सरकार ।
 
दल बदले हैं रोज ही, बदल गई सरकार ।
 
दफ़्तर तो बदले नहीं, लाखों भरे विकार ॥
 
दफ़्तर तो बदले नहीं, लाखों भरे विकार ॥
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कागज़ पर तिकड़म रची, सिर पीटे है तन्त्र ।
 
कागज़ पर तिकड़म रची, सिर पीटे है तन्त्र ।
 
सहस्रफण बैठे हुए, व्यर्थ औषधी , मन्त्र॥
 
सहस्रफण बैठे हुए, व्यर्थ औषधी , मन्त्र॥
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हर कुटिया-द्वारे गए, ढूँढा -कहाँ सुराज।
 
हर कुटिया-द्वारे गए, ढूँढा -कहाँ सुराज।
 
जैसी ठठरी कल रही, वैसा पिंजर आज ॥
 
जैसी ठठरी कल रही, वैसा पिंजर आज ॥
 
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20:53, 12 अगस्त 2022 का अवतरण

212
चार पैग जो पी गया, भूला जग का बैर।
गिर नाली के कीच में, माँगे सबकी खैर।।
213
राष्ट्रवाद भी खोट है, कुछ कहते मक्कार ।
छुपे हुए हैं देश में, ऐसे भी गद्दार।।
214
आज़ादी का नाम ले, खूब मचाई लूट।
चोरी जब पकड़ी गई, माँग रहे हैं छूट॥
215
काले धन को पूजते, पहने काला वेश।
लोकतन्त्र की आड़ में, लूटें पूरा देश॥
216
उम्र बिताई आस में, उसका बने मकान।
गए लुटेरे लूटके, सारे ही अरमान॥
217
आज़ादी सबको मिले , जिनको रहा जुनून।
उनके सपनों का किया, आज देख लो खून॥
218
लोकतन्त्र का नाम ले, कपटी खेलें खेल।
आग लगाकर देश में, छिड़क रहे हैं तेल॥
219
दल बदले हैं रोज ही, बदल गई सरकार ।
दफ़्तर तो बदले नहीं, लाखों भरे विकार ॥
220
कागज़ पर तिकड़म रची, सिर पीटे है तन्त्र ।
सहस्रफण बैठे हुए, व्यर्थ औषधी , मन्त्र॥
221
हर कुटिया-द्वारे गए, ढूँढा -कहाँ सुराज।
जैसी ठठरी कल रही, वैसा पिंजर आज ॥