भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आज नहीं तो कल / अरविन्द यादव

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:48, 22 अक्टूबर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरविन्द यादव |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

आज दम तोड रही हैं
मानवता के लिए घातक
वह परम्पराएँ
जो डसती आ रही हैं
सदियों से
मानव और मानवता को,
उस कुचले सांप की मानिंद
जो फडफडाता है
थोडी देर अपनी पूंछ
कुचले जाने के बाद भी।

शायद यह सोचकर
कि फिर से
उडेल सके अपना संचित विष
स्वस्थ समाज के अंश पर,
यह भूलकर कि कुचला गया है वह
मानवता के लिए
इसी घातक प्रवृत्ति पर।

काश!
वह सीख पाता
जीने का सलीका
अपने ही कुल के दोमुंहे से
तो आज नहीं होता
उसका यह हश्र।

मगर वह भूल गया
यह कटु यथार्थ
कुचले ही जाते हैं
'घातक' मानवता के
आज नहीं तो कल...