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आत्मा और पाप / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति

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मेरी चेतना में,

तुम्हारे दिए परिवेश से,

निरंतर अतिक्रमण,

निरंतर प्रतिक्रमण ,

चल रहा है.

हर नए कड़वे कसैले वचन

ऊबी हुई मुखाकृतियाँ

नया दंश देती हैं.

में शायद अपने पूर्व वैर विद्वेषों के

जन्मान्तर गामी ऋण अनुबंध चुका रहीं हूँ.

चुक जाने दो यह दीना पावना

इस तरह अधिकाधिक

अब अपने ही स्वरुप में,

अवस्थित होती जा रही हूँ.

मैं निः शब्द विचार शून्य होकर

चरम कायोत्सर्ग मैं लीन होना चाहती हूँ.

अतः अविज्ञात दिशा में अपने ही समय पथ पर चल रही हूँ.


ललाट में समक्त्व के चक्षु खुल गए हैं.

अब तो सब जगह जाना है ,

सो कहीं या किसी के पास जाने का चुनाव कैसे करुँ ?

सैधांतिक बाधा भी है,

क्योंकि आत्मा और पाप

साथ -साथ नहीं जाते हैं,

क्योंकि इस जन्म में मैंने तुम्हें,

एकाग्र चित्त,

सम्पूर्ण हृदय की गहराईओं से

चाहने का पाप किया है

अतः यह चाह और चाह जनित संस्कार

मेरे लिए गतिरोध हैं.

अतः अब मैं अपने में ही लौट रही हूँ.

अपने शरीर के आवरण में स्वयम को समेट रही हूँ.

क्योंकि चरम उत्कर्ष पर पहुँचने के लिए

चर्म अपकर्ष कीइस प्रतिक्रिया से पार हुए बिना ,

आगे नहीं जाया जा सकता.

अतः जिसे पार करना है, उसे कल्मष को भेदना ही होगा.

अतः प्रतिबोध दे भगवन !

की तन मन के ऊपरी तलों में,

कितना और कैसा भी विरोधाभास हो,

पर भीतर से एकदम उन्मन रहूँ.

तुम तक तो आना ही है,

मेरे हृदय के श्री वत्स ईश्वर !

बस तुम अनाहत मौन में

निः शब्द मुखरित होकर

मेरी चेतना को जगाये रखना.