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आदिवासी (5) / राकेश कुमार पालीवाल

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(बचेगा आदिवासी ही)
 
सदियों,सहस्त्राब्दियों से नहीं
वह बचता आया है
लाखों करोडो सालों से
 
वह लगातार बचता आया है
मानव नियंत्रित हिरोशिमा नागाशाकी
और ग्यारह नौ जैसी महाघाती त्रासदियों से
 
सुनामी तो अभी हाल फिलहाल की बात है
आदिवासी समूहों का बाल बांका नही कर पायी
सुनामी से भी सौ सौ गुणी भयावह प्राकृतिक आपदाएं
 
मनुष्यता का इतिहास गवाह है
कई कई बार उजडी हैं
इन्द्रप्रस्थ और दिल्ली जैसी कई महानगरी
 
मोहन जोदडो की महान सभ्यता भी
समा गई थी मौत के आगोश मे
बे अवरोध पलक झपकते
 
हमारी धरती के गर्भ मे छिपे हैं
न जाने कितने महानगरों के अस्थि कलश
मोहन जोदडो की तरह
समुद्र की तलहटी मे खोजने पर
मिल सकते हैं दर्जनों द्वारकाओं और
कितने ही राम सेतुओं के खंडहर अवशेष
 
दुनिया भर मे तमाम अनुसंधानों के बावजूद
अभी तक नहीं मिली किसी देश मे
किसी आदिवासी गांव की कब्र
इतिहास या विज्ञान को
 
ऐसी कोई लोककथा भी नही है
जिसमे जिक्र हो
आदिवासी सभ्यता के क्षणिक अंत का
 
फिर भी हम अज्ञानता वश
अक्सर उन्हें कहते हैं पिछडा और अज्ञानी
जब कि चिर काल से असली ज्ञान
उन्हीं के पास है संरक्षित सुरक्षित
उसी ज्ञान के सहारे खींचकर लाये हैं वे
अपनी सभ्यता और संस्कृति की आदिम गाडी
 
हम भी यदि सीखना चाहते हैं जीने के असल गुर
गुरू बनाना होगा आदिवासियों को ही
उन्ही के चरण कमल मे बैठकर सीखना होगा
प्रकृति संरक्षण और पर्यावरण संतुलन का
वह आईंस्टीनी समीकरण
जिससे साबुत रह सकती है हमारी धरती
जिससे जीवित रक सकती है हमारी प्रजाति
जिससे जीवित रक सकती है समग्र वनस्पति
जिससे जीवित रक सकती है सभ्यता संस्कृति
 
अब हमे थोडा सुस्त कर देना चाहिये
भौतिक प्रगति और विकास का राग दरबारी
और ठीक से समझ लेना चाहिये
आदिवासियों का आदिम अर्थशास्त्र
अपना लेनी चाहियें
आदिवासियों की तमाम अच्छी आदतें
और बंद कर देना चाहिये
आदिवासियों को मुख्य धारा मे लाने का मृत्यू राग
मुझे तो पूरा यकीन है दोस्तों
बदलना पडेगा
हमें ही अपना रास्ता एक दिन
और यदि अपनी जिद से
चलते रहे इसी आत्मघाती पथ पर
तो वह दिन बहुत दूर नही जब
इस धरती पर एक बार फिर
बचेगा आदिवासी ही
 
सिर्फ आदिवासी ही बचेंगे
कालान्तर , दिग दिगांतर तक