भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आने वाले दिनों में कविता / नील कमल

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:00, 5 जून 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

थक चुकी होगी वह
नहीं पूछेंगे लोग उसे
                       कौड़ी के मोल
माना कि क्राँति-बीज के
भ्रूण नहीं तैयार होंगे
                       गर्भ में उसके
उदास किसी पत्ती पर
रात लिखेगी मर्सिया
आने वाले दिनों में

भोर की रोशनी भी
क़ैद हो जाएगी कल
                       काली गुफ़ाओं में
दिहाड़ी खटते मज़दूर
के पपड़ियाए होठों पर
                       चस्पाँ होगी वह
भाड़ में अकेले चने-सी
खनखनाएगी, भले वह
                       हार भी जाएगी

कविता फिर भी लिखी जाएगी
कविता की अय्यारी
उनसे न तोड़ी जायेगी
बड़े से बड़े तिलिस्म की चाबी
                        ढूँढ़ता वक़्त
आएगा बार-बार उसी के पास

इसलिए लिखें आप
लिखते रहें कविता
नक्कारख़ाने में तूती बोलती रहे ।