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"आयामों के इन्द्रधनुष / रामस्वरूप परेश" के अवतरणों में अंतर

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चाँद धरती पे इशारों  से बुलाया न गया |
 
चाँद धरती पे इशारों  से बुलाया न गया |
 
लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की  
 
लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की  
जब कोई याद  मुझे आया तो भुलाया न गया |  
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जब कोई याद  मुझे आया तो भुलाया न गया |
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                      [९]
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इन्तजार का का मृदु क्षण मुझको पखवारे सा लगता है |
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हर दरवाजा मुझको तेरे दरवाजे-सा लगता है |
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सच कहता हूँ खाकर मैं सौगंध तुम्हारे अधरों की
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बिना तुम्हारे सांस स्वयं का अंगारे-सा लगता है|
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                      [१०]
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अंगारों पर चला सदा मैं अंतर में मधुमास लिये |
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जूझा हूँ पग-पग झंझा से कूलों का विश्वास लिये |
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तुम्ही चढ़ावोगे आंसू का अर्ध्य हमारे गीतों पर
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इस कारण हँसता आया हूँ मैं जगती का उपहास लिये |
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                    [११]
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सांस वह जिसने समय को दी रवानी है |
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जो फिसलते को संभाले वह जवानी है |
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नींद क्यों आती नहीं बेचैन है मन
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शायद किसी मनुज की आँख में पानी है |
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                    [१२]
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हर आदमी को औरों  के लिये जीना भी नहीं आता है |
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हर सपन को साध का  जिल्द-सीना भी नहीं आता है |
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अफसोस मुकद्दर ने सुराही पे सुराही दी उन्हें
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महफ़िल में जिनको तमीज से पीना भी नहीं आता है | 
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09:04, 25 अक्टूबर 2012 का अवतरण

                      [१]
मेरे माथे का हिम किरीट, ऊंचा नगराज हिमालय है |
हर प्रीत भरे उर का परिचय बस ताजमहल ही में लय है |
मेरी भृकुटि में महा प्रलय मेरी मुस्कानों में अमृत
मैं तो इस भारत की मांटी मेरा इतना सा परिचय है |
                      [२]
जब-जब स्वतन्त्रता के पट में कोई अंगार सजाता है |
शान्ति सुहागिन के कोई शोणित से हाथ रचाता है |
भिन्न- भिन्न हैं जाति धर्म पर जब स्वदेश पर संकट हो
मन्दिर बढ़कर मस्जिद के माथे पर तिलक लगाता है |
                      [३]
ऐसा गीत उचार की जिससे कुछ अँधियारा कम हो जाये |
ईश्वर की पाषाणी मूरत की भी आंखे नम हो जायें |
द्वार-द्वार पर दीप जलाकर जग का तिमिर भगाने वाले
बनकर स्वयं दीप जल जिससे हर मावस पूनम हो जाये |
                      [४]
मनुज मनुज को नहीं मानता है |
ईमान क्या वह नहीं जानता है |
किसी की विवशता पे हंस दो भले
गुजरती है जिस पर वही जानता है |
                      [५]
मृदु जुन्हाई रजत शर से प्राण-बाला तिलमिलाई |
हर विवश मुस्कान पर शत वेदनाएं खिलखिलाई |
नयन निर्झर में घुली हैं स्वप्न की छवियाँ मनोहर
ह्रदय-दर्पण में कभी जब सुधि तुम्हारी झिलमिलाई |
                      [६]
कारवां की धूल पर हम शीश धुनते रह गए |
हम तो अपनों की कमी का जाल बुनते रह गये |
आदमी के जनाजे में भी न हो सके शरीक
अफ़सोस कि पत्थर के लिए फूल चुनते रह गये |
                      [७]
जमाने से मिले अभिशाप कब वरदान बन जायेँ |
न जाने कौन-सी पीड़ा मधुर मुस्कान बन जायेँ |
अत: मैं हर गली की धूल को मस्तक नवाता हूँ
न जाने कौन-सा रज-कण मेरा भगवान बन जायेँ |
                      [८]
दर्द जागा तो गीतों से सुलाया न गया |
चाँद धरती पे इशारों से बुलाया न गया |
लाख कोशिश हुई सुधियों को भुलाने की
जब कोई याद मुझे आया तो भुलाया न गया |
                      [९]
इन्तजार का का मृदु क्षण मुझको पखवारे सा लगता है |
हर दरवाजा मुझको तेरे दरवाजे-सा लगता है |
सच कहता हूँ खाकर मैं सौगंध तुम्हारे अधरों की
बिना तुम्हारे सांस स्वयं का अंगारे-सा लगता है|
                      [१०]
अंगारों पर चला सदा मैं अंतर में मधुमास लिये |
जूझा हूँ पग-पग झंझा से कूलों का विश्वास लिये |
तुम्ही चढ़ावोगे आंसू का अर्ध्य हमारे गीतों पर
इस कारण हँसता आया हूँ मैं जगती का उपहास लिये |
                     [११]
सांस वह जिसने समय को दी रवानी है |
जो फिसलते को संभाले वह जवानी है |
नींद क्यों आती नहीं बेचैन है मन
शायद किसी मनुज की आँख में पानी है |
                    [१२]
हर आदमी को औरों के लिये जीना भी नहीं आता है |
हर सपन को साध का जिल्द-सीना भी नहीं आता है |
अफसोस मुकद्दर ने सुराही पे सुराही दी उन्हें
महफ़िल में जिनको तमीज से पीना भी नहीं आता है |