भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आयी हिमगिरि लाँघ लुटेरों की टोली फुफुकारती / गुलाब खंडेलवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


आयी हिमगिरि लाँघ लुटेरों की टोली फुफकारती
चालीस कोटि सुतों की जननी खड़ी अधीर पुकारती
आज हिमालय के शिखरों से स्वतंत्रता ललकारती
शीश चढ़ा दे जो स्वदेश पर वही उतारे आरती
. . .
अत्याचारी से दुर्बल को, शरणागत को ओट दी
साक्षी है इतिहास, न हमने कभी किसी पर चोट की
देखा किये ध्वंस तिब्बत का, मन में बड़ी कचोट थी
आज पाप का घट आ पहुँचा, सीमा पर विस्फोट की
वही रक्त की बूँद-बूँद बन हनूमान हुंकारती
 
साठ हज़ार सगर-पुत्रों की सैन्य जुटी तो क्या हुआ!
भूल गये जब खुली कपिल मुनि की त्रिकुटी तो क्या हुआ!
रेखा-रक्षित लुटी राम की पर्णकुटी तो क्या हुआ!
पूछो स्मर से --'शांत त्रिनेत्र-समाधि छुटी तो क्या हुआ!
बस मुट्ठी भर राख दिखी थी दक्षिण-पवन बुहारती
 
आज हिमालय के शिखरों से स्वतंत्रता ललकारती
शीश चढ़ा दे जो स्वदेश पर वही उतारे आरती