भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आवाहन / अरुण आदित्य

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:55, 29 नवम्बर 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अरुण आदित्य |संग्रह=रोज़ ही होता था यह सब / अरुण आ…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शब्द आओ मेरे पास
जैसे मानसून में आते हैं बादल
जैसे बादलों में आता है पानी

जैसे पगहा तुड़ाकर गाय के थनों की ओर दौड़ता है बछड़ा
जैसे थनों में आता है दूध

इस तरह मत आओ जैसे
रथों पर सवार आते हैं महारथी
बस्तियों को रौंदते हुए
किसी रौंदी हुई बस्ती से आओ मेरे शब्द
धूल से सने और लहलुहान
कि तुम्हारा उपचार करेगी मेरी कविता
और तुम्हारे लहू से उपचारित होगी वह स्वयं

याचक की तरह मत मांगो किसी कविता में पनाह
आओ तो ऐसे, जैसे चोट लगते ही आती है कराह

संतों महंतों की बोली बोलते हुए नहीं
तुतलाते हुए आओ मेरे शब्द
वस्त्राभूषणों से लदे-फंदे नहीं
नंग-धड़ंग आओ मेरे शब्द

किसी किताब से नहीं
गरीबदास के ख्वाब से निकलकर आओ मेरे शब्द

कि मैं सिर्फ एक अच्छी कविता लिखना चाहता हूँ
और उसे जीना चाहता हूँ तमाम उम्र ।