भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

आस / मुनेश्वर ‘शमन’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नित भोरे बुझय झिलमिल तारा-
फिन साँझ पहर उग आवे हे।
ई देख जगल जीअय के ललक-
बिसवास गेल बढ़ जीवन के।।

हे रहल रीत कायरता के –
आवल भय से घबरावे हे।
बस अरज-अरज के हार हियाँ-
हारल मन के समझावे हे।
लेकिन पतझड़ में भी भौंरा-
संदेसा दे हइ गुंजन के।।

अब उग अइलय जियरा में सच,
संसय के धीरज टूट गेलय।
कुछ दु:ख जन्मल तऽ नया, मुदा
रहिये में केतना छूट गेलय।
ठहरल हे कब तक लहकल दिन
धूर-फिर आवय रितु सावन के।।

हम मन से ललसा के बिखरल
चुन रहलूँ मोतियन, हो तन्मय।
जिनगी के गीत के फिर से हम,
सजबयहूँ दे-दे के सुर-लय।
हम सीख लेलूँ हे, दीवा जरइने
रक्खय ले अब आँगन के।।