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"इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम / गणेश बिहारी 'तर्ज़'" के अवतरणों में अंतर

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इश्क़ की मार बड़ी दर्दीली, इश्क़ में जी न फँसाना जी
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इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
सब कुछ करना इश्क़ न करना, इश्क़ से जान बचाना जी
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कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की
  
वक़्त न देखे, उम्र न देखे, जब चाहे मजबूर करे
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त्याग, चाहत, प्यार, नफ़रत, कह रहे हैं आज भी
मौत और इश्क़ के आगे लोगो, कोई चले न बहाना जी
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हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की
  
इश्क़ की ठोकर, मौत की हिचकी, दोनों का है एक असर
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किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब माँगें मदद
एक करे घर घर रुसवाई, एक करे अफ़साना जी
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बात करता है तो वो भी इक नई ज़ंजीर की
 
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इश्क़ की नेमत फिर भी यारो, हर नेमत पर भारी है
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इश्क़ की टीसें देन ख़ुदा की, इश्क़ से क्या घबराना जी
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इश्क़ की नज़रों में सब यकसां, काबा क्या बुतख़ाना क्या
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इश्क़ में दुनिया उक्बां क्या है, क्या अपना बेगाना जी
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राह कठिन है पी के नगर की, आग पे चल कर जाना है
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इश्क़ है सीढ़ी पी के मिलन की, जो चाहे तो निभाना जी
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'तर्ज़' बहुत दिन झेल चुके तुम, दुनिया की ज़ंजीरों को
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तोड़ के पिंजरा अब तो तुम्हें है देस पिया के जाना जी
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21:45, 23 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण

इक ज़माना था कि जब था कच्चे धागों का भरम
कौन अब समझेगा कदरें रेशमी ज़ंजीर की

त्याग, चाहत, प्यार, नफ़रत, कह रहे हैं आज भी
हम सभी हैं सूरतें बदली हुई ज़ंजीर की

किस को अपना दुःख सुनाएँ किस से अब माँगें मदद
बात करता है तो वो भी इक नई ज़ंजीर की