भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इतना तो है / सुदर्शन वशिष्ठ

Kavita Kosh से
प्रकाश बादल (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:31, 23 अगस्त 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कि तुम बैठे हो चैन से
नहें है सामने कोई
घोंघे सा विरोधी
जो मुँह खोल में छिपा
कर रहा शरारत।

कर रहा शरारत
छिप रहा
कैसे लड़ोगे ऐसे प्रतिद्वंदी से
जो वार भी सामने नहीं करता
और जिसे पकड़ने से घिन आए।

इतना तो है
नहीं चला रह कोई बाण
पीछे से
शिखण्डी को आगे कर
तुम सह लोगे बाण पर बाण
नहीं सह सकोगे शिखण्डी के बोल।

इतना तो है
तुम बैठे हो अपनी सीट पर
आराम से

कोई नहीं डगमगा रहा तुम्हारी कुर्सी।
इतना तो है

पूरी आज़ादी न सही
है तुम्हें इजाज़त
अधूरी बात कहने की।

इतना तो है
लोग पूछते हाल
बीमार होने पर ही सही।

इतना तो है
सिर पर है छत
घर में है दानें
हादसा होने पर
लोग आ जाते समझाने।


गामा,दारा न सही
इतना तो है तुम में
बेशक लोग आ जाएं आज़माने।
इतना तो है
तुममें है जज़्मा
साब सहने का
बार-बार गिर कर
उठ जाने का।