भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इनसानों की आत्मीयता के पीछे / रजनी परुलेकर / सुनीता डागा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:54, 24 सितम्बर 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रजनी परुलेकर |अनुवादक=सुनीता डाग...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इनसानों की आत्मीयता के पीछे छुपी
भली-बुरी मंशाएँ
दो बेलों की एक-दूजे में गुँथी परछाइयाँ
ठीक उसी तरह उनका गुँथाव होता है
वे स्वयं भी नहीं जानते
कब-कैसे बुना गया है

यकायक किसी प्रसंग पर
वह नज़र आ ही आता है
अप्रत्याशित, अपनी तरह उन्हें भी
कोई थरथराते हाथों से दुपट्टा हटा दे
और ख़ूबसूरत चेहरे की जगह उसे
दिखाई दे अपनी विद्रूप मंशा
वैसे ही होता है घटित

फिर वे और भी अधिक आत्मीय बनते हैं
बनावटी-लाचार मुस्कुराहट में
छुपा लेते हैं अपना शर्मिन्दा चेहरा
झुँझलाते हैं
कमज़ोर बहाने बनाते हैं
पल में सौम्य तो पल में आक्रमक बन जाते हैं

दिन रात्रि को जन्म देता है
रात्रि दिन को
बाँबी में रानी चींटी जनती रहती है
ऐसे रिश्ते में पानी भले ही गंदला न हो
हवा का हर झोंका सन्देहास्पद नज़र आता है ।

मूल मराठी से अनुवाद : सुनीता डागा