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इसका क्या ठिकाना है क्या किसी की क़ीमत है / कांतिमोहन 'सोज़'

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इसका क्या ठिकाना है क्या किसी की क़ीमत है।
जानता है जो लेना बस उसी की क़ीमत है ।।

हमको भी अन्धेरे से यूँ कोई लगाव नहीं
मुफ़्त मिल गया लेकिन चाँदनी की क़ीमत है।

अब जो बच गई है वो रोके काटनी होगी
हँस लिए थे बचपन में अब हँसी की क़ीमत है।

हमने सैकड़ों शातिर यूँ ही फँसते देखे हैं
जो ये भूल जाते हैं दिल्लगी की क़ीमत है।

ऐसा कुछ न करना जो मुफ़्त ही चली जाए
दो टके की हो चाहे ज़िन्दगी की क़ीमत है।

कौन किसके वाला है कौन कितने वाला है
ताजिरों<ref>सौदागर</ref> की मण्डी में बस इसी की क़ीमत है।

यूँ जुआ न सट्टा है हर गले में पट्टा है
सोज़ सबके गाहक हैं और सबकी क़ीमत है॥

शब्दार्थ
<references/>