भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

इस तपन से जेठ की घबरा गए थे प्रान / शिव बहादुर सिंह भदौरिया

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस तपन से जेठ की घबरा गए थे प्रान
पर अचानक याद आया एक गंगा स्नान

एक दूजे का परस्पर कर गहे थे
तैर कर कुछ दूर हम संग-संग बहे थे
देख लहरों का लहरकर स्नेह गुम्फन
एक पल को ही चले थे मौन उन्मन
पर न थे इतने कभी हम चपल औ नादान
सह न पाए संयमों का हम कभी अपमान

उम्र भर की प्यास को पनघट मिला था
अ्न्ध तम को ज्योति का जमघट मिला था
एक नन्हा दीप बहता आ रहा था
प्रीत के संगीत को दोहरा रहा था
रह न पाए मौन मुखरित हो रहे थे प्रान
मौन तेरा मुखर मेरा अमर वह सहगान

तुम अखण्डित इस तरह मन में बसे थे
जिस तरह भीगे वसन तन को कसे थे
एक संग निरखे गए दो एक तारे
सांध्य नभ पर जो कि पहले थे पधारे
रेत पर यों ककड़ियों के पात थे छविमान
विरह रेगिस्तान पर ज्यों मिलन नखलिस्तान

स्नेह संचित बालुका पर बैठना वह
प्रेम विह्वल पुतलियों का भेंटना वह
मैं तुम्हारा कौन मेरा प्रश्न करना
और उत्तर में तुम्हारा नभ निखरना
मुग्ध विस्फारित नयन का दिव्य वह आह्वान
आज भी जिसमें समाये जा रहे हैं प्रान