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इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत! (दशम सर्ग) / गुलाब खंडेलवाल

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इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्चल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!

उर को आशा के गान दिये
आशा को नूतन प्राण दिये
प्राणों को वर क्या-क्या न दिये
रँग दिये स्नेह से दिग्-दिगंत
 
अब भी कोई दूरस्थ कुंज
तुम खड़ी जहाँ पर ज्योति-पुंज
अधरों पर स्मिति के रजत गुंज
नयनों में मादकता अनंत
 
जीवन का चिर-चंचल प्रपात
मैं करता सबको आत्मसात
तुम बन सुषमा की मलय-वात
बरसाती चिर-यौवन-वसंत

इस मधुर स्वप्न का कहीं अंत!
प्रिय! निश्चल मानस में भर दी, तुमने कितनी छवियाँ दुरंत!