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हेर-हेर अनुपम बूँदों को
जगी झड़ी में दिशा-दिशा है!
6. बूँद-बूँद बन उतर रही हैयह मेरी कल्पना मनोहर,घटा नहीं प्रेमी मानस में प्रेम बस रहा उमड़-घुमड़ करभ्रान्ति-भांति यह नहीं दामिनी,याद हुई बातें अवसर पर,तर्जन नहीं आज गूंजा हैजड़-जग का गूंजा अभ्यंतर! इतने ऊँचे शैल-शिखर पर कब से मूसलाधार झड़ी है; सूखे वसन, हिया भींगा है इसकी चिंता हमें पड़ी है! 7. बोल सरोवर इस पावस में, आज तुम्हारा कवि क्या गाए,कह दे श्रृंग सरस रूचि अपनी,निर्झर यह क्या तान सुनाए;बाँह उठाकर मिलो शाल, ये दूर देश से झोंके आएरही झड़ी की बात कठिन यह,कौन हठीली को समझाए! अजब शोख यह बूँदा-बाँदी, पत्तों में घनश्याम बसा है झाँके इन बूँदों से तारे, इस रिमझिम में चाँद हँसा है! 8. जिय कहता है मचल-मचलकरअपना बेड़ा पार करेंगेहिय कहता है, जागो लोचन,पत्थर को भी प्यार करेंगे,समझ लिया संकेत ‘धनुष’ का,ऐसा जग तैयार करेंगे,जीवन सकल बनाकर पावस,पावस में रसधार करेंगे. यही कठौती गंगा होगी, सदा सुधा-संचार करेंगे. गर्जन-तर्जन की स्मृति में सब यदा-कदा संहार करेंगे.</poem>