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ईद-1 / नज़ीर अकबराबादी

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शाद था जब दिल वह था और ही ज़माना ईद का ।
अब तो यक्साँ है हमें आना न जाना ईद का ।।

दिल का ख़ून होता है जब आता है अपना हमको याद ।
आधी-आधी रात तक मेंहदी लगाना ईद का ।।

आँसू आते हैं भरे जब ध्यान में गुज़रे है आह ।
पिछले पहर से वह उठ-उठ कर नहाना ईद का ।।

हश्र<ref>क़यामत, प्रलय</ref> तक जाती नहीं ख़ातिर से इस हसरत की बू ।
इत्र बग़लों में वह भर-भर कर लगाना ईद का ।।

होंठ जब होते थे लाल, अब आँखें हो जाती हैं सुर्ख़ ।
याद आता है जो हमको पान खाना ईद का ।।

दिल के हो जाते हैं टुकड़े जिस घड़ी आता है याद ।
ईदगाह तक दिलबरों के साथ जाना ईद का ।।

गुल‍इज़ारों<ref>गुलाब जैसे सुकुमार और कोमल गालों वाली</ref> के मियाँ मिलने की ख़ातिर जब तो हम ।
ठान रखते थे महीनों से बहाना ईद का ।।

अब तो यूँ छुपते हैं जैसे तीर से भागे कोई ।
तब बने फिरते थे हम आप ही निशाना ईद का ।।

नींद आती थी न हरगिज़, भूक लगती थी ज़रा ।
यह ख़ुशी होती थी जब होता था आना ईद का ।।

शब्दार्थ
<references/>