भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उजड़ा संगीत / भरत ओला" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
(नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=भरत ओला |संग्रह=सरहद के आर पार / भरत ओला}} {{KKCatKavita‎}} <Po…)
 
 
पंक्ति 12: पंक्ति 12:
 
बणी-ठणी
 
बणी-ठणी
 
बास गुवाड़ की लुगाईयां
 
बास गुवाड़ की लुगाईयां
जच्चा संग आती
+
जच्चा<ref>प्रसूता स्त्री</ref> संग आती
 
सुगणी बुआ
 
सुगणी बुआ
 
पराते चके सिर पर  
 
पराते चके सिर पर  
‘पीळो’ गाती
+
‘पीळो’<ref>मांगलिक लोकगीत</ref> गाती
 
टींगर धमकाती  
 
टींगर धमकाती  
 
घूघरी बांटती
 
घूघरी बांटती
पंक्ति 32: पंक्ति 32:
 
हुआ करता था जाल
 
हुआ करता था जाल
 
इसी पर  
 
इसी पर  
खेला करते थे कुर्रांडंडा
+
खेला करते थे कुर्रांडंडा<ref>प्रसूता स्त्री</ref>
 
यहीं हुआ करता था ताल
 
यहीं हुआ करता था ताल
गुल्लीडंडा, मारदड़ी, घुथागिंडी
+
गुल्लीडंडा, मारदड़ी<ref>ग्रामीण खेल</ref>, घुथागिंडी<ref>क्रिकेट जैसा एक ग्रामीण खेल</ref>
लगा करते थे टोरे
+
लगा करते थे टोरे<ref>प्रसूता स्त्री</ref>
पिदाया करते थे टींगरों को
+
पिदाया करते थे टींगरों<ref>खेल में विपक्षी खिलाड़ी को अधिक दौड़ाना</ref> को
  
 
यहीं, यहीं
 
यहीं, यहीं
पंक्ति 44: पंक्ति 44:
 
बजाया करता था अलगोजे
 
बजाया करता था अलगोजे
  
हांडीबगत
+
हांडीबगत<ref>दोपहर बाद का समय</ref>
 
बजता था ऊखल-मूसल का संगीत
 
बजता था ऊखल-मूसल का संगीत
 
टिक जाती थी खिचड़ी
 
टिक जाती थी खिचड़ी
हारे बीच
+
हारे<ref>बड़ा चुल्हा</ref> बीच
  
हाली आता
+
हाली<ref>कृषक</ref> आता
पाटड़े पर बैठ नहाता
+
पाटड़े<ref>लकड़ी की पट्टी</ref> पर बैठ नहाता
 
आंगण बीच पसारा मार
 
आंगण बीच पसारा मार
 
सबड़कता चारों ओर
 
सबड़कता चारों ओर
पंक्ति 61: पंक्ति 61:
  
 
</Poem>
 
</Poem>
 +
 +
{{KKMeaning}}

16:40, 4 फ़रवरी 2011 के समय का अवतरण


हां
यहीं था मेरा गाँव
यहीं था पनघट
लंहगे-बोरले में
बणी-ठणी
बास गुवाड़ की लुगाईयां
जच्चा<ref>प्रसूता स्त्री</ref> संग आती
सुगणी बुआ
पराते चके सिर पर
‘पीळो’<ref>मांगलिक लोकगीत</ref> गाती
टींगर धमकाती
घूघरी बांटती

यहीं हुआ करता था दंगल
दंड पेलते
मुगदर फिराते
धींगामस्ती करते
लड़ा करते थे कुस्ती

चमक चानणी रात में
बजा करते थे डफ
गाई जाती थी धमाल
हुआ करती थी घोड़ा कबड्डी
यहीं जोहड़ की पाल पर
हुआ करता था जाल
इसी पर
खेला करते थे कुर्रांडंडा<ref>प्रसूता स्त्री</ref>
यहीं हुआ करता था ताल
गुल्लीडंडा, मारदड़ी<ref>ग्रामीण खेल</ref>, घुथागिंडी<ref>क्रिकेट जैसा एक ग्रामीण खेल</ref>
लगा करते थे टोरे<ref>प्रसूता स्त्री</ref>
पिदाया करते थे टींगरों<ref>खेल में विपक्षी खिलाड़ी को अधिक दौड़ाना</ref> को

यहीं, यहीं
टणमणाया करती थीं
बैलों के गलें में घंटियां
रेहडू पर बैठा रामदीन
बजाया करता था अलगोजे

हांडीबगत<ref>दोपहर बाद का समय</ref>
बजता था ऊखल-मूसल का संगीत
टिक जाती थी खिचड़ी
हारे<ref>बड़ा चुल्हा</ref> बीच

हाली<ref>कृषक</ref> आता
पाटड़े<ref>लकड़ी की पट्टी</ref> पर बैठ नहाता
आंगण बीच पसारा मार
सबड़कता चारों ओर
जिन्दगी का रोजमर्रा संगीत

कहां गया वह गांव
वह गीत
किसने तोड़ी भला
यह रीत ?

शब्दार्थ
<references/>