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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'}}<poem>ना पैरों के नीचे धरती ।धरती।सिर पर भी आकाश नहीं । ।नहीं॥
पलभर मुड़कर देखे पीछे।
इतना तक अवकाश नहीं ॥नहीं॥
मज़्में वालों ने पी डाला
सारा नीर सरोवर का ,
हुआ बुरा अंजाम यहाँ
दुनिया की सभी धरोहर का ।का।बाकी तो बच पाई तलछट ।तलछट।बुझती जिससे प्यास नहीं ॥नहीं॥
अंधकूप में डूब गए हैं
अनगिन पथिक कारवाँ के ,
देखो कैसे खिसक गए हैं
रहबर हमें यहाँ लाके ।लाके।बेगानों की इस बस्ती में ।में।कोई किसी का खास नहीं ॥नहीं॥
बूँद-बूँद विष पीलें जग का
सोचा था हमने मन में
बनी तभी प्यासी दीवारें
झुलसे बंजर जीवन में ।में।इसीलिए अपने ऊपर भी ।भी।हो पाता विश्वास नहीं ॥नहीं॥पाप –पुण्य पाप–पुण्य की परिभाषाएँसड़कों पर रोज़ बदलती है ,
दीवारों से डर लगता जब
मुँह से बात निकलती है ।है।अपने और परायों तक का ।का।हो पाता विश्वास नहीं ॥नहीं॥
किसी आँख से बहते आँसू
जब ले लिए हथेली पर
आरोप लगाने वालों को
मिला यही अच्छा अवसर ।अवसर।धूल –शूल धूल–शूल के सिवा और कुछ ।कुछ।छूटा अपने पास नहीं । ।नहीं॥
मन में हम अफ़सोस करें क्यों
बीती कड़वी बातों का
उजियारे के जीवन में है
हाथ बहुत ही रातों का ।का।हमको धारा में बहने का ।का।हो पाया अभ्यास नहीं । ।नहीं॥</poem>