भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उठ चल मेरे मन / शार्दुला नोगजा" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
पंक्ति 18: पंक्ति 18:
 
खींचे अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की
 
खींचे अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की
  
एक मुठ्ठी धर, एक टुकड़ा गगन का
+
एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
 
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
 
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
 
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
 
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में

06:42, 12 अगस्त 2009 का अवतरण

हो विलग सबसे, अकेला चल पड़ा तू
एक अपनी ही नयी दुनिया बसाने
तूफ़ान निर्मम रास्ते के शीर्य तुझ को
मन! ना घबरा, गीत जय के गुनगुना ले !

स्वर्ण, रजत व कांस्य घट ले नित्य दिनकर
भर रहा अंबर की नीली झील में क्षण
गा रहे खग के समूह तज नीड़ अपना
तू भी मगन दोहरा नव निर्माण के प्रण

ले विदा तू हाथ जिनको जोड़ आया
कर गहेंगी स्मृतियाँ तेरे बालपन की
ओ मेरे मन! राह से ना विलग होना
खींचे अगर रंगीनियाँ तुझको चमन की

एक मुठ्ठी धरा, एक टुकड़ा गगन का
एक दीपक की अगन भर ताप निश्छल
नेह जल बन उमड़ता हिय में, दृगों में
वेग मरुतों का ढला बन श्वास प्रतिपल

विलय तुझ में हैं सकल अवरोध पथ के
नीतियाँ तुझ में ही जयश्री के वरण की
तू स्वयं ही द्वारपालों सा खड़ा मन
तुझ से निकलती सीढियाँ अंतिम चरण की

उठ मेरे मन दूर तू इस घाट से चल
तोड़ चल तू मोह के सब बन्धनों को
राह की कठिनाईयाँ तकतीं हैं रस्ता
दे नया तू अर्थ मानव जीवनों को !

उठ चल मेरे मन !
चल !