भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उत्सव के दिन बहुत अकेले बैठे उत्सव / गरिमा सक्सेना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उत्सव के दिन बहुत अकेले बैठे उत्सव
आँसू की झीलों में कैसे डूबे उत्सव

सन्नाटे में बीती होली, दीवाली, छठ
शहर गये हैं गाँवों के बेचारे उत्सव

कैलेण्डर में टँगे-टँगे ही रहते हैं अब
शहरों की भागादौड़ी में खोये उत्सव

नकली मुस्कानों को ओढ़े फिरते चेहरे
अवसादों की सीलन में हैं सीले उत्सव

पोता-पोती घर आये हैं दस बरसों में
बूढ़ी-ठहरी आँखों में गहराये उत्सव

मन था खुलकर उत्सवमय हो जाने का पर
मजबूरी की हथकड़ियों में जकड़े उत्सव

उत्सव का असली मतलब अब शेष बचा क्या
सेल्फी लेने तक ही बस मुस्काते उत्सव

दुनियादारी रीति-रिवाज़ों को ढोती बस
बचपन ने ही सच में सिर्फ़ मनाये उत्सव