भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
"उनसे जब भी मुसाफ्हा कीजे / सर्वत एम जमाल" के अवतरणों में अंतर
Kavita Kosh से
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{KKGlobal}} | {{KKGlobal}} | ||
− | {{KKRachna | + | {{KKRachna |
|रचनाकार=सर्वत एम जमाल | |रचनाकार=सर्वत एम जमाल | ||
|संग्रह= | |संग्रह= |
17:18, 5 सितम्बर 2010 का अवतरण
उन से जब भी मुसाफ्हा कीजे
उँगलियाँ अपनी गिन लिया कीजे
दूध में हल तो हो गया पानी
अब ज़रा दूध को जुदा कीजे
बेडियाँ रात ही में टूटी थीं
रात कट जाए यह दुआ कीजे
बंद कमरे घुटन उगाते हैं
कुछ घड़ी धूप में रहा कीजे
आपको भी वतन पे प्यार आया
इस मरज़ की कोई दवा कीजे
इन्कलाब, इस जगह पे, नामुमकिन
चैन से बैठिये, मज़ा कीजे