भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

उनसे जब भी मुसाफ्हा कीजे / सर्वत एम जमाल

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 17:17, 5 सितम्बर 2010 का अवतरण

यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

|रचनाकार=सर्वत एम जमाल |संग्रह= }} साँचा:KKCatGazal

उन से जब भी मुसाफ्हा कीजे
उँगलियाँ अपनी गिन लिया कीजे

दूध में हल तो हो गया पानी
अब ज़रा दूध को जुदा कीजे

बेडियाँ रात ही में टूटी थीं
रात कट जाए यह दुआ कीजे

बंद कमरे घुटन उगाते हैं
कुछ घड़ी धूप में रहा कीजे

आपको भी वतन पे प्यार आया
इस मरज़ की कोई दवा कीजे

इन्कलाब, इस जगह पे, नामुमकिन
चैन से बैठिये, मज़ा कीजे