भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

"उन्हें मन्दिर में रखा है / कविता भट्ट" के अवतरणों में अंतर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
('{{KKRachna |रचनाकार=कविता भट्ट |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCatKavita}} <poem>...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
 
(कोई अंतर नहीं)

08:43, 12 दिसम्बर 2019 के समय का अवतरण

चोट खाकर मुस्कराई, न गिरी, ना मैं लड़खड़ाई।
जिन पत्थरों ने ठोकरें दी, उन्हें मन्दिर में रखा है।

खामोश सर्द रातें भी, ओढ़ कम्बल पुरानी बिताई।
छीन ले जब वक्त सब कुछ, मन शिखर में रखा है।

सूने पतझड़ों में, पर्वतों से-सदाएँ मेरी लौट आईं
दिव्य स्वर- अंतर्नाद भीतर, हृदय विवर में रखा है।

क्षणिक सुख सब देह का, कभी भी न उलझ पाई।
गुदगुदाती प्रीत है, गुनगुनाता दर्द अंतर में रखा है।

पद-मद-अभिमान, सब- इस जगत की एक रुबाई।
मिट्टी हैं- अरमान 'कविता', क्या इस भँवर में रखा है?