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"उमर खैयाम / गुलाब खंडेलवाल" के अवतरणों में अंतर

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'सैंकड़ों वर्ष फिरे भी न फिरेगा यह क्षण
 
'सैंकड़ों वर्ष फिरे भी न फिरेगा यह क्षण
 
दिन ढलें लाख, न यह रात पुन:आयेगी
 
दिन ढलें लाख, न यह रात पुन:आयेगी
रत्न-सा छूट न कभी हाथ लगेगा यौवन
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रत्न-सा छुट न कभी हाथ लगेगा यौवन
रूप की लौट न बरात पुन: आयेगी
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रूप की लौट न बारात पुन: आयेगी
 
 
 
 
 
"ज्ञान की बाँध बड़ी पोट गले गुरुओं के  
 
"ज्ञान की बाँध बड़ी पोट गले गुरुओं के  

01:52, 22 जुलाई 2011 का अवतरण


काल का चक्र सतत घूम रहा मस्तक पर
आयु का क्षीण तड़ित-लेख मिटा जाता है
स्वप्न का इन्द्रधनुष-बिम्ब तुहिन-अधरों पर  
शून्य में काँप, अभी देख, मिटा जाता है
 
'सैंकड़ों वर्ष फिरे भी न फिरेगा यह क्षण
दिन ढलें लाख, न यह रात पुन:आयेगी
रत्न-सा छुट न कभी हाथ लगेगा यौवन
रूप की लौट न बारात पुन: आयेगी
 
"ज्ञान की बाँध बड़ी पोट गले गुरुओं के
कूप में डाल उन्हें, और उठा ले प्याला
आज की रात तुझे अंक लगाकर अपने
वे मधु खेल दिखाऊँ कि बने मतवाला
 
"दीप जो आज जले, प्रात सभी को बुझना
पूछता कौन वहाँ, --'स्नेह लुटाया क्यों था!'
अधजला-सा, कि जला-सा, कि जलन पीता-सा
तू ज़रा पूछ उसी से कि जलाया क्यों था!
 
'शाह जमशेद कहाँ तख़्त सुलेमानी आज!
लुब्ध महमूद, कनक-छत्र सहित सोया है
धूल में लीन सिकंदर महान की फौजें
कौन यह मुर्दघटी  देख नहीं रोया है!
 
मैं तुम्हें और कहूँ एक बड़े गुर की बात
बात सच है कि इसे लोग छिपाते आये
ज्ञात कुछ भी न हमें भेद मरण-जीवन का
मूढ़ को मूढ़ यहाँ राह दिखाते आये
 
चाँद यह बंधु! तुम्हें कल न यहाँ पायेगा
फूल होंगे, न तुम्हीं एक मिलोगे वन में
आम्र पर बैठ तुम्हें व्यर्थ पुकारेगा पिक
स्पंद होगा न पुन: क्षार हुए यौवन में
 
'इस सजल कुंज-तले रैन बसेरा कर लो
गा रही बैठ जहाँ पात्र भरे मधुबाला
पास प्रिय काव्य, झुके पेड़ फलों के सिर पर
स्वर्ग नि:शेष यहीं, और न आनेवाला
 
जब प्रिया-संग खड़े चाँद नया देखोगे
मैं तुम्हें बन्धु! कहीं भी न दिखाई दूँगा
कुछ रचे छंद, यही मन्त्र निखिल जीवन के
दे यही भेंट तुम्हें आज विदा ले लूँगा
 
'मैं रहूँगा न जहाँ, कौन सुरालय होगा!
किस प्रिया का न मुझे रूप झलक जायेगा!
कौन यौवन कि जहाँ प्यास न होगी मेरी
अंश मेरा कि भरा पात्र छलक जायेगा