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"उलटी हो गई सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया / मीर तक़ी 'मीर'" के अवतरणों में अंतर

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20:57, 21 सितम्बर 2010 के समय का अवतरण

उलटी हो गई सब तदबीरें<ref>युक्तियाँ</ref>, कुछ न दवा ने काम किया
देखा इस बीमारी-ए-दिल ने आख़िर काम तमाम किया

अह्द-ए-जवानी<ref>यौवन-काल</ref> रो-रो काटा, पीरी<ref>वृद्धावस्था</ref> में लीं आँखें मूँद
यानि रात बहुत थे जागे सुबह हुई आराम किया

नाहक़ हम मजबूरों पर ये तोहमत है मुख़्तारी<ref>स्वतंत्रता</ref> की
चाहते हैं सो आप करें हैं, हमको अबस<ref>यूँ ही</ref> बदनाम किया

सारे रिन्दो-बाश<ref>शराबी/ मवाली</ref> जहाँ के तुझसे सजुद में रहते हैं<ref>तेरा सम्मान करते हैं</ref>
बाँके टेढ़े तिरछे तीखे सब का तुझको अमान किया

सरज़द हम से बे-अदबी तो वहशत<ref>पागलपन में </ref> में भी कम ही हुई
कोसों उस की ओर गए पर सज्दा हर हर गाम किया

किसका क़िबला कैसा काबा कौन हरम है क्या अहराम
कूचे के उसके बाशिन्दों ने सबको यहीं से सलाम किया

ऐसे आहो-एहरम-ख़ुर्दा की वहशत खोनी मुश्किल थी
सिहर किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझ को राम किया

याँ के सपेद-ओ-स्याह में हमको दख़ल जो है सो इतना है
रात को रो-रो सुबह किया, या दिन को ज्यों-त्यों शाम किया

सायदे-सीमीं<ref>चाँदी-सी बाहें</ref> दोनों उसके हाथ में लेकर छोड़ दिए
भूले उसके क़ौलो-क़सम पर हाय ख़याले-ख़ाम किया

ऐसे आहू-ए-रम ख़ुर्दा<ref>ज़ख़्म खाए-हिरण </ref> की वहशत<ref>पागलपन</ref> खोनी मुश्किल है
सिह्र किया, ऐजाज़ किया, जिन लोगों ने तुझको राम<ref>शांत</ref> किया

'मीर' के दीन-ओ-मज़हब का अब पूछते क्या हो उनने तो
क़श्क़ा खींचा<ref>तिलक लगाया</ref> दैर <ref>मंदिर</ref> में बैठा, कबका तर्क<ref>छोड़</ref> इस्लाम किया

शब्दार्थ
<references/>