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"उल्फ़त का फिर मन है बाबा / 'अना' क़ासमी" के अवतरणों में अंतर

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उल्फ़त का फिर मन है बाबा  
 
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फिर से पागलपन है बाबा  
 
फिर से पागलपन है बाबा  
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जग में तेरा-मेरा क्या है  
 
जग में तेरा-मेरा क्या है  
उसका ही सब धन है बाबा
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उसका ही सब धन है बाबा</poem>

15:43, 7 सितम्बर 2011 के समय का अवतरण

उल्फ़त का फिर मन है बाबा
फिर से पागलपन है बाबा

सब के बस की बात नहीं है
जीना भी इक फ़न है बाबा

उससे जब से आंख लड़ी है
आँखों के धड़कन है बाबा

अपने अंतरमन में झाँको
सबमें इक दरपन है बाबा

हम दोनों की ज़ात अलग है
ये भी इक अड़चन है बाबा

पूरा भारत यूं लगता है
अपना घर-आँगन है बाबा

जग में तेरा-मेरा क्या है
उसका ही सब धन है बाबा