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ऊँचाई / अटल बिहारी वाजपेयी

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लेखक: [[अटल बिहारी वाजपेयी]]{{KKGlobal}}[[Category:कविताएँ]]{{KKRachna[[Category:|रचनाकार=अटल बिहारी वाजपेयी]]}}{{KKCatKavita}}<poem>ऊँचे पहाड़ पर, पेड़ नहीं लगते, पौधे नहीं उगते, न घास ही जमती है।
~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~*~:::जमती है सिर्फ बर्फ, :::जो, कफ़न की तरह सफ़ेद और, :::मौत की तरह ठंडी होती है। :::खेलती, खिलखिलाती नदी, :::जिसका रूप धारण कर, :::अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती है।
ऊँचे पहाड़ परऐसी ऊँचाई,<br>पेड़ नहीं लगतेजिसका परस पानी को पत्थर कर दे,<br>पौधे नहीं उगतेऐसी ऊँचाई जिसका दरस हीन भाव भर दे,<br>न घास ही जमती है।<br><br>अभिनंदन की अधिकारी है, आरोहियों के लिये आमंत्रण है, उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,
:::जमती है सिर्फ बर्फकिन्तु कोई गौरैया,<br>:::जोवहाँ नीड़ नहीं बना सकती, कफन की तरह सफेद और,<br>:::मौत की तरह ठंडी होती है।<br>:::खेलती, खिलना कोई थका-खिलाती नदीमांदा बटोही,<br>:::जिसका रूप धारण कर,<br>:::अपने भाग्य पर बूंद-बूंद रोती उसकी छाँव में पलभर पलक ही झपका सकता है।<br><br>
ऐसी सच्चाई यह है कि केवल ऊँचाईही काफ़ी नहीं होती,<br> जिसका परस<br>सबसे अलग-थलग, पानी को पत्थर कर देपरिवेश से पृथक,<br>ऐसी ऊँचाई<br>अपनों से कटा-बँटा, जिसका दरस हीन भाव भर देशून्य में अकेला खड़ा होना,<br>अभिनन्दन पहाड़ की अधिकारी हैमहानता नहीं,<br>आरोहियों के लिये आमंत्रण है,<br>मजबूरी है। उस पर झंडे गाड़े जा सकते हैं,<br><br>ऊँचाई और गहराई में आकाश-पाताल की दूरी है।
:::किन्तु कोई गौरैयाजो जितना ऊँचा,<br>:::वहाँ नीड़ नहीं बना सकतीउतना एकाकी होता है,<br>:::ना कोई थका-मांदा बटोहीहर भार को स्वयं ढोता है,<br>:::उसकी छांव में पलभर पलक चेहरे पर मुस्कानें चिपका, :::मन ही झपका सकता मन रोता है।<br><br>
सच्चाई ज़रूरी यह है कि<br>केवल ऊँचाई ही काफी नहीं होतीके साथ विस्तार भी हो,<br><br>सबसे अलग-थलगजिससे मनुष्य,<br>परिवेश से पृथकठूँठ सा खड़ा न रहे,<br>अपनों औरों से कटाघुले-बंटामिले,<br>शून्य में अकेला खड़ा होनाकिसी को साथ ले,<br>पहाड़ की महानता नहीं,<br>मजबूरी है।<br>ऊँचाई और गहराई में<br>आकाश-पाताल की दूरी है।<br><br>किसी के संग चले।
:::जो जितना ऊँचाभीड़ में खो जाना,<br>:::उतना एकाकी होता हैयादों में डूब जाना,<br>:::हर भार को स्वयं ढोता हैको भूल जाना,<br>:::चेहरे पर मुस्कानें चिपकाअस्तित्व को अर्थ,<br>:::मन ही मन रोता जीवन को सुगंध देता है।<br><br>
जरूरी यह है कि<br>धरती को बौनों की नहीं, ऊँचाई ऊँचे कद के साथ विस्तार भी हो,<br>इंसानों की जरूरत है। जिससे मनुष्यइतने ऊँचे कि आसमान छू लें,<br>ठूंट सा खड़ा न रहेनये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br>औरों से घुले-मिले,<br>किसी को साथ ले,<br>किसी के संग चले।<br><br>
:::भीड़ में खो जानाकिन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br>:::यादों में डूब जानाकि पाँव तले दूब ही न जमे,<br>:::स्वयं को भूल जानाकोई काँटा न चुभे,<br>:::अस्तित्व को अर्थ,<br>:::जीवन को सुगंध देता है।<br><br>कोई कली न खिले।
धरती को बौनों की नहींन वसंत हो, न पतझड़,<br>ऊँचे कद के इन्सानों की जरूरत है।<br>इतने ऊँचे कि आसमान छू लेंहो सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br>नये नक्षत्रों में प्रतिभा की बीज बो लें,<br><br>मात्र अकेलेपन का सन्नाटा।
:::किन्तु इतने ऊँचे भी नहीं,<br>:::कि पाँव तले दूब ही न जमे,<br>:::कोई कांटा न चुभे,<br>:::कोई कलि न खिले।<br><br> न वसंत हो, न पतझड़,<br>हों सिर्फ ऊँचाई का अंधड़,<br>मात्र अकेलापन का सन्नाटा।<br><br> :::मेरे प्रभु!<br>:::मुझे इतनी ऊँचाई कभी मत देना,<br>:::गैरों ग़ैरों को गले न लगा सकूँ,<br>:::इतनी रुखाई कभी मत देना। <br><br/poem>