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एकाकी / महेन्द्र भटनागर

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भव्य भवनों से भरे

रौशनी में तैरते
सौन्दर्य के प्रतिबिम्ब
इस नगर में
कौन है परिचित तुम्हारा ?
कौन परिचित है ?

जिससे सहज बोलें
मिलें जब-तब.....
हृदय के भेद खोलें !
जिसे समझें
आत्मीय.....विश्वसनीय !
नि:संकोच जिसको
लिखें प्रिय-पत्रा,
या दूरवाणी से करें सम्पर्क,

जिसके द्वार पर जा
दें अधिकार से दस्तक
पुकारें नाम !

ऐसा कौन है
परिचित तुम्हारा ?
अजनबी हैं सब,
अपरिचित हैं,
इतने बड़े-फैले नगर में !
कोई-कहीं
आता नहीं अपना
नज़र में !