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"एक अछूती कहानी / प्रदीप शर्मा" के अवतरणों में अंतर

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23:47, 1 अक्टूबर 2023 के समय का अवतरण

एक गाँव में एक वृद्ध
लेटा शैया पर कराह रहा
महिनों से भूखा रोगी है
उसका हर अंग बतला रहा
घास–फूस की है वह झुग्गी,
मिट्टी की दीवारें हैं
भग्नावशेष–सी दिखती जो
पर उस पर नूतन नारे हैं
असहाय बेचारा पड़ा हुआ,
असंख्यों की आबादी में
मिट्टी का सिकोरा पास पड़ा,
यही मिला उसे आज़ादी में।

आँखों की ज्योति क्षीण हुई
कानों को पर कुछ सुनता है
लोगों का जत्था आ रहा,
नारों की ताल को धुनता है
स्वर प्रखर ज्यों होता है,
ऑंखों पे अंधेरी छाती है
भय से सहमता जाता् वह,
ज्यों भीड़ समीप हुई जाती है
असंख्य हाथ हैं उठे हुए,
मशालें जिनमें जलती हैं
क्षण–क्षण पल–पल सुन–सुन कर स्वर
वह जर्जर काया हिलती है।

चले आ रहे हैं सम्मुख ही
पण्डित श्री पाखण्डानन्द
धवल जनेउ उज्जवल वस्त्र
गलमाला हाथों में दण्ड
चन्दन का टीका मस्तक पर
सिर पर सुशोभित चोटी है
कन्धों पर है धवल दुशाला,
काया उनकी कुछ मोटी है
माथे पर बल आँखें निर्जल,
तभी गूंज उठी उनकी वाणी
“दण्ड दो इसको रुकते हो क्यों?
प्रभु महिमा जाने यह प्राणी”।

वाणी की प्रतीक्षा थी मानो,
दो बलिष्ट भुजाएं हिलती हैं
ले घायल को उन हाथों में,
वह दुष्ट आकृति चलती है
कांप रहा क्षण क्षण वह वृद्ध,
शैया पर लेटा लेटा
दोनो अधर उत्सुक पर बन्द,
स्वर नहीं निकलता है बेटा
हाँ यही बालक उस वृद्ध का
एक इकलौता बेटा है
वही जिसे इन दुष्टों ने
कर्कष करों में समेटा है।

निवस्त्र करते वे देखो,
दुर्बल वह पीठ लजाती है
सभ्य समाज के नेता ये,
पर इनको शर्म न आती है
चण्डाल खड़ा है सम्मुख ही
हाथों में उसके कोड़ा है
“खत्म करो अधर्मी को
यह पापी नीच भगोडा. है
बिन अनुमति मन्दिर प्रांगण के
यह अन्दर घुस आया है
अपने अछूत पैरों से इसने
पुण्य भूमि को जुठलाया है”

“चुन लाया फूल बगीचे से
मानो वह इसका स्वामी है
कुल का न ध्यान धर्म नाशक
यह पाप पंथ अनुगामी है।”
अपने ओजस्वी स्वर में यह
पण्डित जी सफाई देते हैं
मस्तक चम चम, मुख से बम–बम,
कभी–कभी मुस्कुरा लेते हैं
सामने विशाल जनयूथ खड़ा
न्याय की आशा करता
और गहरी साँसें ले रहा
वृद्ध रूग्ण डरता डरता।

कोड़े पड़ते हैं नग्न पीठ पर
पण्डितजी हर्षित होते हैं
इधर कराहता बच्चा,
वृद्ध के अश्रु नयन भिगोते हैं।
निर्बल पिता उठना चाहता,
पर श्क्ति कहां है ऊस तन में
यही न्याय है भारत का?
वह सोच रहा मन ही मन में
तेल वहां छिड़का जाता,
यहां वृद्ध का तन तिलमिलाता है
उठने का जी बहुत करता पर
श्क्ति नहीं वह पाता है।

और एक ज्योति से बालक का
तन प्रज्वलित हो जाता है
“ओ बापू ओ मेरे पिता”
वह जलता बालक चिल्लाता है।
“ओ बापू ओ राष्ट्रपिता”