भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक अल्हड़ चंचला-सी बाँह में श्लथ मैं रहूँ औ / अनुराधा पाण्डेय

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:43, 1 मार्च 2021 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अनुराधा पाण्डेय |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक अल्हड़ चंचला-सी बाँह में श्लथ मैं रहूँ औ
चिर निशा भर तुम सतत प्रिय! गीत प्रणयन के उचारो।

मैं विमंडित आभरण से,
वायु में मृदु गंध घोलूं।
प्रीत के मकरंद लेकर,
धुर विरह की दाह धो लूँ।
मैं तुम्हें निरखूं नयन भर, तुम मुझे जी भर निहारो।

चिर निशा भर तुम सतत प्रिय! गीत प्रणयन के उचारो।

गाल पर लटकी लटों को,
तर्जनी से टारना तुम।
और हर इक भंगिमा पर,
प्राण तन मन वारना तुम।
मैं तुम्हें मन्मथ कहूँ औ, तुम मुझे रतिके पुकारो!

चिर निशा भर तुम सतत प्रिय! गीत प्रणयन के उचारो।

भाव मेरे उर निलय के,
नैन से निज मात्र पढ़ना।
राग रंजित हो बहाना,
तुम प्रणय का आर्ष झरना।
दे रही तुमको शपथ प्रिय! चिर विरह व्रण से उबारो।

चिर निशा भर तुम सतत प्रिय! गीत प्रणयन का उचारो।