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मैंने एक आवाज़ सुनी, मुझे ढाढ़स बँधा रही थी,
और सहज स्वर में अपने पास बुला रही थी वो,
आजा-आजा छोड़ वह धरती, बहरी और अपावन,
छोड़ रूस को हमेशा के लिए, तेरे लिए भयावन ।
रक्त लगा हाथों पर तेरे, सुर्ख़ ख़ून वो मैं धो दूँगी,
स्याह शरम दिल के भीतर जो, उसे भी भिगो दूँगी,
हार का दर्द और नाराज़गी तेरी, जो मन को टीस रही है,
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