भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

एक ख़ास मौसम / विनोद विक्रम केसी

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 03:29, 18 मई 2019 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

उसने कहा — भाईसाब !
आप तो हीरो दिखते हैं ।
उधर मेरे पड़ोस के बच्चे
मुझे भूत कहते हैं ।

उसने कहा — भाईसाब !
आपकी आँखे बहुत सुन्दर हैं ।
मेरे पड़ोस के बच्चों को
वे लगती हैं टमाटर की तरह ।

उसने कहा — भाईसाब !
आपकी नाक को बारीकी से तराशा है कुदरत ने ।

मगर मेरे पड़ोस के बच्चे मेरे मुँह पर कहते हैं —
ऐसी नुकीली नाक
किस चोरबाज़ार मे मिलती है, अँकल ?

आपको बता दूँ
मेरे पड़ोस के बच्चे बहुत अच्छे हैं
मेरा मज़ाक उड़ाते हैं
पर मुझे प्यार करते हैं ।

ये बच्चे नहीं होते तो
मै भूल ही जाता कि एक ख़ास मौसम में
मै उनको अच्छा लगता हूँ, बहुत अच्छा ।

वह
जो राजनीति सीख रही अपनी सन्तति को सिखाता है —
इलेक्शन के मौसम मे
हर कुत्ते को हिरन कहा करो
फिर लोकतन्त्र की गली भी तुम्हारी
लोकतन्त्र का जँगल भी तुम्हारा ।

(रचनाकाल : 2017,जब नेपाल में स्थानीय सरकार का निर्वाचन हो रहा था ।)