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एक चाभा / कुमार वीरेन्द्र

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कहँवा से उमड़-घुमड़
आए बादल, और ई बरसन बरसे, खेतों में
लग गया पानी, फिर का, फिकिर तितिर बन उड़ी कवनो ओर, शुरू हो गया
लेव लगाना, धान का बीया छींटने को, रोहिन नक्षत्र में, छिंटा जाए, बखत पे
हो जाए शुरू रोपाई, बाबा दूर लेव लगा रहे, बगीचे में मैं
रोहिनिया आम की रखवारी में, दिन-भर
में एक-दो टपकने जो
लगा था

बरखा रुकी थी, तो था तो
डरार प ही खड़ा, पर जाने कहँवा खोया, सुबेर से
एगो टपका भी, बित्ते-भर पानी जो पेड़ चहुँओर, टपकते लुका गया, जिधर से आई आवाज़
लात-हाथ से ऐसे घँघोर दिया, गरई मछरी भी उतरा जाती, पर ई आम, टपका तो सही, गया
कहँवा, ग़ज़बे छक-छका रहा था, बरखा जइसन पसीना बहवा रहा था
लेव लगा जब आए बाबा, और कहा, तो बाबा तो बाबा
शुरू हुई फिर ढूँढ़ा-ढूँढ़ी, और बाबा ने
धर ही लिया, लुकाया
था जहाँ

ढूँढ़ रहा था कहँवा तो
येने-ओने, और कहँवा तो वह जड़ तर ही थथम
गया था, अहा, रोहिनिया रे रोहिनिया, का पियरा के पका था, निहार-निहार 'बाबा की जय बाबा
की जय' करने लगा था, बाबा का क्या, थके-हारे लौटे थे, डरार प बैठ खैनी बनाते, लेव-खेत को
ताके जा रहे थे, जिसमें घास छान-छान मेंड़ प फेंक रहे थे बाबूजी, जितना
साफ़ खेत, उजियाएगा बीया उतना, बाबा खैनी बना रहे
थे, इधर मैं चोंप गार रहा था, बाबा पीट
रहे थे खैनी अब खाने ही
वाले थे, गया

और कहा, 'बाबा
अबहीं मत खाओ खैनी, कहते हो न
तो खा के कहो, लो, ई चाभो एक चाभा', बाबा जानते थे, ज़िद्दी है, सुनेगा
नहीं, तो रसगर रोहिनिया एक चाभा चाभने के बाद, बाबा का भी मिज़ाज
रोहिनिया जइसन डभा गया; मुस्कुराने लगे, जब एक
चाभा और चभाते कहा, 'काहे बाबा, अब
बताओ अब, मिहनत
का फल

मीठ होता है न !'