भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक चिरैया चहकी बाहर / कुमार रवींद्र
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:58, 22 मई 2011 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= कुमार रवींद्र |संग्रह=और...हमने सन्धियाँ कीं / क…)
एक चिरैया
चहकी बाहर
महका पूरा घर है
लचकी है गुलाब की टहनी
फूल खिल गया पूरा
अपने अंदर हमने झाँका
सपना मिला अधूरा
हम बहके
चिड़िया को देखा
वह उड़ गई किधर है
सुबह-सुबह चिड़िया का आना
कैसा हुआ सगुन है
अंदर अपने गूँज रही अब
उसकी मीठी धुन है
चिड़िया
जितनी थी बाहर
अब उतनी ही भीतर है
चिड़िया के गुलाब होने का
हमने देखा जादू
उधर पड़ोसी के घर से
आवाज़ आई है - 'दादू'
लगता
बच्चा भी पड़ोस का
देता यही ख़बर है