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एक दिया चलता है आगे / कृष्ण मुरारी पहरिया

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एक दिया चलता है आगे -
आगे अपने ज्योति बिछाता
पीछे से मैं चला आ रहा
कम्पित दुर्बल पाँव बढ़ाता

दिया जरा-सा, बाती ऊँची
डूबी हुई नेह में पूरी
इसके ही बल पर करनी है
पार समय की लम्बी दूरी

दिया चल रहा पूरे निर्जन
पर मंगल किरणें बिखराता

तम में डूबे वृक्ष-लताएँ
नर भक्षी पशु उनके पीछे
यों तो प्राण सहेजे साहस
किन्तु छिपा भय उसके नीचे

ज्योति कह रही, चले चलो अब
देखो वह प्रभात है आता