भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

Changes

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
 
{{KKGlobal}}
{{KKRachna
{{KKCatKavita}}
<poem>
''' एक नदी यह भी ''' जिन राजमार्गों, राजवीथियों पर सभ्यताओं के फलने-फूलने परसूर्य पूरे दिन उत्सव मनाता था चन्द्रमा अलमस्त चांदनी का सरगम बजाता था, वहां लोग गुत्थम-गुत्थ बह रहे हैं  तरल बहते लोगों से संडाध उठ रही हैसंस्कृतियों के कल्पतरुओं का कहीं अता-पता नहीं है,आखिर, जिन तरुओं की जड़ों में दीमक लग गए हों उनके बचने की उम्मीद कैसे की जा सकती है? दु:ख है की उनके अवशेष नवपतन और नवविनाश के खाद भी न बन पाए उन विषैले, पुष्पहीन-फलहीन पौधों के जिन्हें छूना तो घातक है ही देखने-सूंघने भर से कांटे चुभ जाते हैं लोग-बाग़ बहते रहने के उन्माद में भूल जाते हैं किवे पर्वतीय सडकों से उतरकर सैकड़ों-हजारों गज नीचे सचमुच, मिथक बन चुकी नदियों के कंकाल में बहने लगे हैं