भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक नन्ही चिड़िया रंगीन / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:15, 12 दिसम्बर 2023 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=हरीशचन्द्र पाण्डे |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
कोरोना समय में पृथक्-वास के दिनों
वह सीधे रँगरेज़ के यहाँ से चली आई थी कमरे में
मेरा अपना रँग धूसर था उस वक़्त
मैं पहाड़ था कि पेड़ पता नहीं क्या था उसके लिए
वह डर नहीं रही थी मुझसे
मुझे लगा वह मेरी बाँह को शाख समझ कर बैठ जाएगी अभी
कुछ न कुछ ज़रूर गाएगी
शायद वह जानती थी ये गाने के दिन नहीं
सारे नन्हें पाँवों की नुमाइन्दगी करते हुए उसके पाँव अभी
कमरे के बहाने पूरी धरती नाप रहे थे
और धरती के हर कोने में अभी ऑक्सीजन
सारे मज़हबों का अकेला ईश्वर थी
जंगल ऑक्सीजन के विशाल संयन्त्र थे
और पेड़ भरे हुए सिलिण्डर
वह पेड़ से उतरकर ही कमरे में आई होगी
मेरी अनींद में नींद की क़लम लगाकर चली गई ।