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एक मुजरिम को मसीहा नहीं बता सकते / विनय कुमार

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एक मुजरिम को मसीहा नहीं बता सकते।
आइने दोस्त हैं पर सच नहीं छुपा सकते।

युग अनन्नास हैं, औजा़रो हुनर से खाएँ
सिर्फ़ दाँतों से नफ़ासत से नहीं खा सकते।

खून के दाग़ हैं सरहद के हरे दामन पर
हम इसे खून से हरगिज़ नहीं मिटा सकते।

आँच तो ठीक है, हाँडी ही कुछ सियासी है
दाल उम्मीद की हम-तुम नहीं गला सकते।

जिस सरोवर में सुयोधन छिपा है जल उसका
सब युधिष्ठिर नहीं हैं, सब नहीं पचा सकते।

जिसके खिलने से महकती है ज़माने की हवा
आप उस फूल की खुशबू नहीं चुरा सकते।

हम रिवायत को ख्यालों में जगह देते हैं
माफ़ करना मगर मुर्गे नहीं लड़ा सकते।

पूँछ तो झड़ गई पाँवों पे खड़े होने में
और उगती भी नहीं है कि हम हिला सकते।