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एक सूखी नदी के नाम / रेखा

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विपाशे!
आज तुम्हें देखकर
आते हैं याद
दानी दधीचि
जिनके अस्थिवज्र से
जीता गया था
देवासुर संग्राम
अब तुम्हारे जल से निर्मित
विद्युत वज्र से
मिटेगा तिमिर
अँधकार-अज्ञान है
अज्ञान-आसुरी
यह भी तो देवासुर संग्राम है

पर मैं मानव हूँ
नहीं देवता
तुम्हारा दान
महादान
मुझमें आक्रोश जगाता है
मेरा भावुक मन
आँसू बहाता है

तुम्हारे किनारों पर उगा
यह नगर
मैं एक पौधा हूँ इसका
तुम्हारे उफनते आवेग को
मेरे बचपन ने निहारा
कौतूहल से
बरसाती के रूप में
छटपटाईं
मेरे यौवन की उद्दाम तरँगें
ग्रीष्मकालीन कृश-काया में
जले-बुझे
मेरे विरही मन के निश्वास
और शरद ऋतु के कुहासे में
ढकी हुई तुम्हें देख
भर उठी वैराग्य से

जब रात के अँधकार में
घाटियों में टिमटिमाते उजाले
थिरका करते थे
तुम्हारी लहरों पर
जलाया करती थी मैं
कहीं घाट के मंदिर में
दिपदिपाते सपने के
दीप
विपाशे!
आज तुम्हें देख
मन करता है
हाहाकार
जिस तरह लाशें
धू-धू जला करती हैं
तुम्हारे पथरीले पाट पर बसे
नँगे शमशान में

ये असंख्य
काले, अनगढ़ पत्थर
जो सदियों से तरल थे
तुम्हारी शीतल तरलता में
आज उभर आए हैं यूँ
कि उनका पत्थरपन
चुभ-चुभ कर कहता है
पत्थर
पत्थर ही हैं
ये नहीं पसीजते

लगता है
तुम कल्पना हो
किसी ध्वस्तद्वीप में
बहने वाली नदी की
तम्हारे तीर पर
पत्थरों के संग्रहालय हैं
पुरातत्ववेत्ता
जहाँ कभी भविष्य में
चुनेंगे, परखेंगे सराहेंगे
पत्थरों को
और खोजेंगे
मृतप्राय कहानियाँ
किंवदंतियाँ

पर तेरी गहराई से उगी मैं
सूख जाऊँगी
और तेरे श्मशान में
बाट जोहेंगी
मेरी अस्थियाँ
किसी भगीरथ सरीखे वंशधर की

तुम्हारे दान से
लहलहाएँगे हजारों खेत
टिमटिमाएँगे कई पुरवे
कर्मरत होंगे इस यज्ञ में
हजारों हाथ...

पर मेरा चातक मन
बाट जोहेगा
जलधरों की
और चोंच खोले चिर तृषित-सा
तुम्हारे तीर पर
देखा करेगा

दूर से
किसी अनुष्ठान में अर्पित
प्रिया को

1976