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एक स्वप्न कथा / भाग 4 / गजानन माधव मुक्तिबोध

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4

मुझसे जो छूट गये अपने वे
स्फूर्ति-मुख निहारता बैठा हूँ,
उनका आदेश क्या,
क्या करूँ?

रह-रहकर यह ख़याल आता है-
ज्ञानी एक पूर्वज ने
किसी रात, नदी का पानी काट,
मन्त्र पढ़ते हुए,
गहन जल-धारा में
गोता लगाया था कि
अन्धकार जल-तल का स्पर्श कर
इधर ढूँढ, उधर खोज
एक स्निग्ध, गोल-गोल
मनोहर तेजस्वी शिलाखण्ड
तमोमय जल में से सहज निकला था;
देव बना, पूजा की।
उसी तरह सम्भव है-
सियाह समुन्दर के
अतल-तले पड़ा हुआ
किरणीला एक दीप्त
प्रस्तर - युगानुयुग
तिमिर-श्याम सागर के विरूद्ध निज आभा की
महत्त्वपूर्ण सत्ता का
प्रतिनिधित्व करता हो, आज भी।
सम्भव है, वह पत्थऱ
मेरा ही नहीं वरन्
पूरे ब्रह्माण्ड की
केन्द्र-क्रियाओं का तेजस्वी अंश हो।
सम्भव है,
सभी कुछ दिखता हो उसमें से,
दूर-दूर देशों में क्या हुआ,
क्यों हुआ, किस तरह, कहाँ हुआ,
इतने में कोई आ कानों में कहता है--
ऐसा यह ज्ञान-मणि
मरने से मिलता है;
जीवन के जंगल में
अनुभव के नये-नये गिरियों के ढालों पर
वेदना-झरने के,
पहली बार देखे-से, जल-तल में
आत्मा मिलती है
(कहीं-कहीं, कभी-कभी)
अरे, राह-गलियों में
पड़ा नहीं मिलता है ज्ञान-मणि।

हाय रे!
मेरे ही स्फूर्ति-मुख
मेरा ही अनादर करते हैं,
तिरस्कार करते हैं,
अविश्वास करते हैं!
मुझे देख तमतमा उठते हैं।
क्रोधारुण उनका मुख-मण्डल देखकर लगता है,
छिड़ने ही वाली है युग-व्यापी एक बहस
उभरने वाली है बेहद जद्दोजहद ?
बहुत बड़ा परिवर्तन
सघन वातावरण होने ही वाला है;
जिसके ये घनीभूत
अन्धकार-पूर्ण शत
पूर्व-क्षण
महान अपेक्षा से यों तड़प उठते हैं
कि मेरे ही अंतःस्थित संवेदन
मुझपर ही
झूम, बरस, गरज, कड़क उठते हैं।

उनका वार
बिलकुल मुझी पर है;
बिजली का हर्फ़
सिर्फ़ मुझपर गिर
तहस-नहस करता है;
बहुत बहस करता है