भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं / जॉन एलिया
Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:46, 18 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार= जॉन एलिया }} Category:ग़ज़ल <poem> एक हुनर है जो कर गया हू...)
एक हुनर है जो कर गया हूँ मैं
सब के दिल से उतर गया हूँ मैं
कैसे अपनी हँसी को ज़ब्त करूँ
सुन रहा हूँ के घर गया हूँ मैं
क्या बताऊँ के मर नहीं पाता
जीते जी जब से मर गया हूँ मैं
अब है बस अपना सामना दरपेश
हर किसी से गुज़र गया हूँ मैं
वो ही नाज़-ओ-अदा, वो ही घमजे
सर-ब-सर आप पर गया हूँ मैं
अजब इल्ज़ाम हूँ ज़माने का
के यहाँ सब के सर गया हूँ मैं
कभी खुद तक पहुँच नहीं पाया
जब के वाँ उम्र भर गया हूँ मैं
तुम से जानां मिला हूँ जिस दिन से
बे-तरह, खुद से डर गया हूँ मैं
कू–ए–जानां में सोग बरपा है
के अचानक, सुधर गया हूँ मैं