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ऐ सैल-ए-आब ठहर अब के गर्दनों तक रह / जावेद अनवर

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ऐ सैल-ए-आब ठहर अब के गर्दनों तक रह
तनों की तख़्तियाँ धोनी हैं बस तनों तक रह

जहाँ है शहर वहाँ दूर तक दरिन्दे हैं
ग़ज़ल, ग़ज़ाल के होंटों पे आ बनों तक रह

गली में ताक में बैठे हैं तिफ़्ल-ए-सँग-ब-दस्त
ऐ मेरी ख़्वाहिश-ए-अय्यार आँगनों तक रह

बहुत से काम हैं जिन से निपटना बाक़ी है
विसाल-रुत तो बड़ी शय है सावनों तक रह

हवा में तीर चलाने से फ़ाएदा 'जावेद'
तिरी जब आँखें खुली हैं तो दुश्मनों तक रह