भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ऑनर किलिंग / निर्देश निधि

Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:00, 4 अगस्त 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=निर्देश निधि |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ऊर्जा के अश्व पर सवार अल्हड़ रज्जो
हँसती, गुनगुनाती, इतराती, इठलाती
कोरी-कोरी आँखों के तीखे-तीखे तीरों से
अनगिनत कोरे-कोरे सपने बींधती
काटती रोज़ घास की फुनगियों को
बीन कर सूखी-सूखी लकड़ियों को, गठरियों में बाँधती
भवानी मंदिर की सीढ़ियों पर सुस्ताती देर तलक, सखी सहेलियों संग
पीपल के बलिष्ठ बाजुओं पर
पहले दिन मन्नतों के धागे बाँधती
अगले दिन खोल देती मन की सब गांठें
पोखर वाले नीम के कानों में मन के सब राज उड़ेल देना चाहती
पर सकुचाती, नहा जाती लज्जा से
नीम ने एक दिन चुपके से कहा उसके कानों में
मैं पोखर पुत्र नीम हूँ, कोई शहरी अरिकेरिया नहीं
तुम चाहो कहना कह सकती हो
मन की बातें, पूरी साज सज्जा से
हुआ था सिलसिला शुरू रज्जो के उस नीम से बतियाने का
माँ, बाबा, भैया, सबसे छिपकर ठंडी छाँव में, एकल हो जाने का
फिर
नीम पर खिल उठा था अमलतास
हो गया था नीम कुछ-कुछ हरसिंगार-सा भी
दहकने लगा था गुलमोहर रज्जो में
खिल उठे फूल उसपर बेला चमेली के
बेदर्द सामाज की, पैनी कुल्हाड़ियों को
खटक गया था नीम पर हरसिंगार का खिलना
बुझी-बुझी रज्जो में गुलमौहर का दहकना
घास की फुनगियों की तरह ही कट गया था भरपूर यौवन में
झूमते-गुनगुनाते हरे भरे नीम का सिर
फिर उसी नीम की बेजान,
पर प्रेम से लबालब लकड़ियों में
जला था रज्जो का दहकता गुलमौहर जीवित